Friday, January 26, 2007

बढ़ती हिंसा, असामाजिकता और हमारे नैतिक मूल्य...

प्रिय बंधुओ,

आजकल शहरों में अचानक कुछ गुंडे और मवाली आतंक फैलाकर दुकानें बन्द करा देते हैं । पहले व्यापारी भयभीत होकर दुकानें बन्द करते हैं, फिर सामूहिक रूप से जिला प्रशासन के खिलाफ़ अपनी नाराजी प्रकट करते हैं । यह दृश्य देखकर ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई कुकर्मी माता-पिता अपने आवारा बेटों पर नाराज हो रहे हों । तनिक विचार तो कीजिये जो हो रहा है , उसके लिये कहीं हम सब तो उत्तरदायी नहीं हैं । व्यापारी होने के सिवाय हम सब के दो स्वरूप और हैं ।पहला - पारिवारिक स्वरूप, दूसरा - नागरिक स्वरूपपहले पारिवारिक स्वरूप की बात कर लें, ज़रा विचार तो कीजिये । एक व्यापारी के रूप में जिस आतंक और अन्याय को भोगने के लिये हम अभिशप्त हैं, उसका निर्माण अपने पारिवारिक और नागरिक स्वरूप में कहीं हम ही तो नहीं कर रहे हैं । विचार कीजिये अपने परिवार और मित्रों के बीच हम पवित्र कुरान की आयतों या वेद मंत्रों की भांति गर्वपूर्वक अपने ज्ञानमय वाक्यों को अनेक बार नहीं दोहरा रहे हैं ।जैसे - आजकल सब चोर है, सारे नेता बेईमान हैं, सारे अधिकारी भ्रष्ट हैं । कभी विचार किया है, यह कहकर आप अपने बेटों को प्रकारान्तर से यह तो नहीं समझा रहे हैं कि उन्होने जिस समाज में जन्म लिया है और जी रहे हैं, उसमें हर आदमी झूठा और बेईमान है । इस समाज में रहने के लिये कहीं बड़ा झूठा और बेईमान होने का लाईसेंस तो हम अपने बच्चॊं को नहीं दे रहे हैं । याद कीजिये क्या हमने अपने परिवारों में चर्चा करते समय उन चरित्रहीन और घटिया लोगों को महिमा-मंडित तो नहीं किया है जिन्होने अन्याय और गलत साधनों से धन या रूतबा हासिल किया है । कभी गांधी, जवाहरलाल, भगतसिंह, सुभाष, मौलाना आज़ाद या रफ़ी अहमद किदवई हमारे परिवारों में चर्चा का विषय बने हैं ।हम यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि कोई गुरु नानक, दयानंद या विवेकानन्द हमारे परिवारों में चिन्तन का विषय नहीं हैं। वह भी केवल इस अपराध के लिये कि उन्होने दो पैसे नही कमाये, या अन्याय और आतंक से कोई पद या रूतबा हासिल नहीं किया । याद कीजिये कभी आपने, उन लोगों के प्रति उपेक्षा या घृणा का भाव अपने परिवार में, बच्चॊं के सामने प्रदर्शित किया है, जिन्होने अन्याय और गलत साधनों से सफ़लता अर्जित की है, जरा अपने मन को टटोलिये कि अपनी धार्मिक आस्था में हम किन लोगों के साथ खड़े हैं । उन लोगों के साथ जो गणेश जी की मूर्ति को दूध पिलाने के पाखण्ड में विश्वास रखते हैं और यह विश्वास करते हैं कि किसी पीर की आसमानी ताकत से समुद्र का पानी मीठा हो गया, या उन लोगों के साथ खड़े हैं, जो साहसपूर्वक यह कहने का साहस करते हैं कि यह दोनों ही पाखण्ड हैं, जो अज्ञान और अंधविशवास से पैदा हुए हैं । अगर हमारे परिवारों में गुरुनानक सहित गुरु गोविन्द सिंह की परंपरा चर्चा का विषय होती तो हमारे बच्चे यह जान पाते कि एक मात्र हमारे सिख भाइयों की ही यह परंपरा है, जिनके गुरुओं ने अपने धर्म और आत्म सम्मान की रक्षा के लिये शीश बलिदान किये हैं । इतिहास में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि १००० वर्षों में किसी शन्कराचार्य ने अपने सिर कटवाये हों । महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी ने आत्म रक्षा में वीरतापूर्वक लड़ाईयाँ लडीं थीं लेकिन अन्याय और आतंक के प्रतिकार के दर्शन को जन्म देकर उस समाज का निर्माण नहीं कर सके जो आतंक के सामने झुकने के बजाय जीवन उत्सर्ग करना महत्वपूर्ण मानता है । यह श्रेष्ठ कर्म पंचम गुरु अर्जुन देव से लेकर दशम गुरु गोविन्द सिंह तक सिख गुरुओं ने ही किया है । अगर हमारे परिवारों में इनके विषय में चिंतन की परंपरा होती तो हमारे बच्चों को यह ज्ञात होता कि खालसा पंथ की स्थापना गुरुओं ने समाज और स्वभिमान की रक्षा के लिये ही की थी । भारतीय समाज अगर सम्मानपूर्वक जीवित है तो यह उपकार सिख गुरुओं, ऋषि दयानंद और स्वामी विवेकानन्द जैसे लोगों का ही है । अगर यह ज्ञान रखना पारिवारिक परंपरा रही होती तो न स्वर्गीय इन्दिरा गान्धी जैसी साहसी महिला प्रधानमंत्री से देश वंचित होता और ना हमारे नौनिहाल जयपुर में किसी सिख साथी के बाल काटते, जिससे देश भर में हिन्सा का वातावरण बन गया है ।एक नागरिक के रूप में आप क्या कर रहे है? हमारा देश एक जनतांत्रिक समाज है, आप जिस किसी राजनेतिक दल में हो या उसे मत देते हो ये महत्वपूर्ण नहीं है । महत्वपूर्ण है कैसे आदमी को वोट देते हो । आप कभी ऐसे आदमी को वोट देते हैं जिसका चरित्र समाज और बच्चॊं के लिये प्रेरणादायक हो ।विचार कीजिये, क्या आप उन्हें वोट नहीं दे रहे, जिन्होने धन और आतंक से रुतबा हासिल किया है । एक ऐसा समाज जो अपने देश का इतिहास, उसकी गौरवशाली परंपराये, उसकी कमजोरियों और उसके कारणों को न जानने वाले डकेतों, दलालों और माफियाओं को अपना नेता चुनता है, उसे प्रशासन की यह आलोचना करने का नैतिक अधिकार नहीं हैं कि वह आतंक से उनकी रक्षा नहीं करता है । प्रशासन में बैठे हुए लोग कोई आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते नहीं हैं, वो भी उसी समाज का हिस्सा हैं जो गुंडो और मवालियों को अपना नेता चुन रहा है । जॉर्ज बर्नाड शॉ की गिनती संसार के चुने हुए बुद्धिमानों में होती है । उनका यह कथन याद रखिये - "जब जनता मूर्ख होती है, तो नेता धूर्त होता है" ।उस घटना को याद कीजिये जिस पर आप इतना नाराज हो रहे हैं । याद कीजिये आपने हमेशा शिव-सैनिकों, बजरंग दलियों या राजनीति के भेष में आये हुए किसी भी माफ़िया के आव्हान पर नत-मस्तक होकर दुकान बन्द नहीं की है क्या ? जिस किसी के हाथ में मारने के लिये जूता या बाँटने के लिये पंजीरी हो, उसे आप नमस्कार नहीं करते क्या? ऎसा कोई नेता अपनी दुकान पर आ जाने पर आप अपने आप को धन्य मानकर उसके साथ फोटो खिंचाने को उत्सुक नहीं रहते क्या ? जिन बच्चों ने अभी आतंक फ़ैलाया था वे अपनी ही बिगड़ी हुई ऒलादें हैं, जो अपनी ही हरकतों को देखकर यह सीख रही है कि अन्याय और आतंक से, झूठ और फरेब से, धन और रूतबा हासिल करना ही नेता होने की कसौटी है । उन्होनें गलत क्या किया है भाई ? नाराज़ क्यों हो रहे हो ?अभी गणेशोत्सव और नवरात्रि का त्योहार आने वाला है । क्या हम नहीं जानते की हमने हमारे सारे त्योहार गुंडो और मवालियों के हवाले कर दिये हैं । गणेशोत्सव हो या दुर्गा उत्सव, उसके स्थापना और विसर्जन के जुलूसों में प्रतिमाओं के आगे शराब पीकर नाचनेवाले कहीं बाहर से नही आये हें, ये हमारे ही नौनिहाल हैं जो अश्लील और भोडे नृत्यों पर हुड़्दंग कर रहे हैं । प्रतिक्षण इस बात की सम्भावना रहती है कि कहीं शान्ति भंग होकर दंगे में परिणत ना हो जाये ।अगर प्रशासन के किसी अधिकारी ने इन धार्मिक जुलूसों में शराब पीकर हुड़दंग करने वाले अपने किसी बेटे को पकड़ लिया तो आप उस अधिकारी की सराहना करेंगे या किसी राजनैतिक माफ़िया के धार्मिक आस्था पर चोट पहुँचाने के आदेश पर बन्द के आव्हान पर दुकान बन्द करेंगे । यह व्यापारी समाज ही है जो प्रकारांतर से धर्म के नाम पर होने वाले इन आयोजनों के लिये हजारों, लाखों रूपये चंदा देता है । क्या तमाम व्यापारी संगठन यह घोषणा नही कर सकते, जो गणेश उत्सव या दुर्गा उत्सव समिति अपने समारोहों में शराब पीकर अश्लील नृत्य और हुडदंग न होने देने की घोषणा और प्रयास सार्वजनिक रूप से नहीं करती उसे कोई व्यापारी चन्दा नहीं देगा ।याद रखिये यह हमारी उपेक्षा और अज्ञान है, जिससे समाज के बौने और घटिया लोगों की छाया लम्बी हो रही है । अगर आप अपने देश में न्याय और शान्ति के सूर्य का अस्त होना न देखना चाहे तो ऐसे बौने और घटिया लोगों का समर्थन करने वालों की कतार में शामिल ना हों । कृपया अपने समाज के उन लोगों का सम्मान कीजिये जो इस देश की परंपरा, उसका गौरवशाली इतिहास अपने निजी और सार्वजनिक आचरण से प्रमाणित करते हो और हमारी उपेक्षा या सम्मान उसे अपने कर्तव्य से विचलित नहीं करती हो ।

4 comments:

ePandit said...

"अगर हमारे परिवारों में गुरुनानक सहित गुरु गोविन्द सिंह की परंपरा चर्चा का विषय होती तो हमारे बच्चे यह जान पाते कि एक मात्र हमारे सिख भाइयों की ही यह परंपरा है, जिनके गुरुओं ने अपने धर्म और आत्म सम्मान की रक्षा के लिये शीश बलिदान किये हैं । इतिहास में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि १००० वर्षों में किसी शन्कराचार्य ने अपने सिर कटवाये हों । महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी ने आत्म रक्षा में वीरतापूर्वक लड़ाईयाँ लडीं थीं लेकिन अन्याय और आतंक के प्रतिकार के दर्शन को जन्म देकर उस समाज का निर्माण नहीं कर सके जो आतंक के सामने झुकने के बजाय जीवन उत्सर्ग करना महत्वपूर्ण मानता है । यह श्रेष्ठ कर्म पंचम गुरु अर्जुन देव से लेकर दशम गुरु गोविन्द सिंह तक सिख गुरुओं ने ही किया है ।"

आपका लेख बहुत सुन्दर तथा विचारोतेजक है, लेकिन आखिर आप भी इन्सान ही ठहरे तो पूर्वाग्रह आप में भी हैं। क्या किसी के कार्यों का मूल्यांकन केवल इसी बात से होता है कि उसने सिर कटाया या नहीं। शंकराचार्य आदि धार्मिक नेता थे, उनके कार्यों का मूल्यांकन धार्मिक-सामाजिक संदर्भों में होना चाहिए, जरुरी तो नहीं कि महान आदमी केवल वही हो जो तलवार-बंदूक लेकर रणभूमि में उतर आए। सिर कटाने के अतिरिक्त और भी बहुत तरीके हैं देश और समाज की सेवा के। सिख गुरुओं की महानता का मैं भी कायल हूँ लेकिन आपकी भाषा में पूछूं तो गुरु तेगबहादुर के अतिरिक्त किस गुरु ने सिर कटाया। आप ऋषि दयानन्द को महान मानते हैं लेकिन सिर तो उन्होंने भी नहीं कटवाया। उनकी मृत्यु द्वेषवश विष दिए जाने से हुई थी। राष्ट्र के लिए वो बलिदान हुए ऐसी कोई बात न थी। फिर आप कहते हैं कि केवल सिख गुरु ही आतंक के समझ न झुके। सिख गुरुओं में इस कार्य विशेष हेतु बलिदान केवल गुरुतेगबहादुर और गुरु गोबिंद सिंह ने ही दिया। अन्य गुरु तो केवल भक्ति-परंपरा के उपासक थे। फिर आप महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हैं। जहाँ अन्य राजाओं ने अकबर आदि मुगल शासकों के अधीन होकर भोगमय जीवन बिताना पसंद किया वहीं इन दोनों ने पूरा जीवन जंगलों की खाक छानते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिए न्यौछावर कर दिया। यह अन्याय का प्रतिकार नहीं तो क्या था।

आपका लेख और विचार बहुत अच्छे थे, लेकिन क्षमा कीजिए आप भी हिन्दुत्व-विरोध के पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगते हैं। कुछ कथनों ने पूरे लेख की सुन्दरता खत्म कर दी। मेरा आपको यही सुझाव है कि किसी के महापुरुष को कमतर आँकने से पहले उसके बारे में पूरा अध्ययन करें।

Divine India said...

बचपन में जब कोई बच्चा अपने पिता से यह प्रश्न करता है …आपने ईश्वर को देखा है…जवाब होता है…ईश्वर है!! बस यहीं से शुरु होती है झूठ की शिक्षा…
जहाँ तक रही शहीद होने की बात तो मैं तुच्ची-2 बातों में शहीद होने को बहादुरी नहीं कहता…ऐसे मरने में क्या सार…राणा प्रताप ने तो Suicidal attempt लिया था 5000 की सेना 100000 के सामने क्या टिकती?एकता व समांजस्य का भाव तो था ही नहीं…

ePandit said...

शंभुनाथ जी, स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में। इस बात पर ध्यान बाद में गया कि ये आपकी पहली पोस्ट है। अक्सर पहली पोस्ट Hello World स्टाइल में होती है न।

एक बार स्वागत है, उम्मीद है ऐसे ही विचारोतेजक लेख पढ़ने को मिलते रहेंगे।

S.Harilal said...

जगत गुरु आदि शन्कराचार्य ने अपनी माँ का शरीर तक कटवाया और काफ़ी दक्षिणी महान व्यक्तियों की महान कहानियाँ आज भी अन्धकार मे है आप कृपया जगत गुरु आदि शन्कराचार्य कृत "भजगोविन्दम्" पठिये.