Saturday, February 3, 2007

वे दिन वे लोग....

पता नहीं प्रभु है या नहीं
किन्तु उस दिन यह सिद्ध हुआ
जब कोई भी मनुष्य
अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है
नियति नहीं है पूर्व निर्धारित
उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है ।


(धर्मवीर भारती-अधां युग)

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का जन्म, भारतीय नवजागरण के सांस्कृतिक आंदोलन के गर्भ से हुआ । जिस
सांस्कृतिक आंदोलन के नेता राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, श्रीमति एनीबेसेंट, लोकमान्य तिलक, और योगीराज अरविंद हों उसके राजनैतिक नेता महात्मा गाँधी ही हो सकते थे । भारत की जनता ने लगभग ५००० वर्ष की अपनी साधना के बाद अपने महान हिन्दू धर्म को रामकृष्ण परमहंस के रूप में साकार देखा । ऐसा लगता है रामकृष्ण परमहंस ही गाँधी के रूप में अवतरित हुए । कुछ इसी तरह की भविष्यवाणी योगीराज अरविंद ने अलीपुर जेल से रिहाई के बाद अपने एतिहासिक उत्तरपाड़ा भाषण में की थी । गाँधी का जन्म और विकास तो नव जागरण की भूमि पर हुआ लेकिन पैगम्बरों और अवतारों की भाँति वे काल को खींचकर अपने पीछे ले गये और उस उक्ति को सिद्ध किया कि महापुरुषों के कारण इतिहास की गति बदल जाती है । महात्मा गाँधी के नेतृत्व में लड़े गये स्वतंत्रता आंदोलन में संसार ने भारतीय संस्कृति के १०००० वर्ष की साधना के नवनीत को चिंतन और कर्म के रूप में देखा । संसार के हर पहलू पर गाँधी जी की छाप मौजूद है ।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्गत काँग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का जन्म १९३३ में नासिक जेल में हुआ । जहाँ साहस और उमंग से भरे आजादी के आंदोलन के सिपाही जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, युसुफ़ मेहर अली, मीनू मसानी और अशोक मेहता इक्ट्ठे हुए । तब उम्र में सबसे छोटे अशोक मेहता २१ वर्ष और जयप्रकाश नारायण ३० वर्ष के थे । स्वाधीनता आंदोलन के जगमगाते हुए सितारे जवाहरलाल नेहरू स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही काँग्रेस को समाजवाद की राह ले जाना चाहते थे । उन्हें अक्टूबर १९३३ में ही "हिन्दुस्तान किस ओर" के नाम से एक लेख प्रकाशित किया था ।
समाजवादी पार्टी के सब नेता अन्यतम देश-भक्त राष्ट्रवादी, धर्म-निरपेक्ष और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले थे । लेकिन नव जवान होने के कारण देश और समाज की परिस्थितियों का आकलन कर धेर्य रखने की क्षमता नहीं थी । इसकी झलक महात्मा गाँधी के पत्र में मिलती है जो उन्होंने १७ अगस्त १९३४ को पंडित नेहरु को लिखा था ।

"समाजवादियों का हद से ज्यादा ख्याल किया गया है लेकिन एक जमात के नाते मेंने उन्हें जल्दबाज पाया है अगर मैं तेज नही चल सकता तो मुझे उनसे रूकने को और मुझे अपने साथ-साथ ले चलने को कहना ही चाहिये ।"

व्यक्तिगत अहंकार नेता के प्रति अविश्वास और संगठन का अभाव समाजवादियों की जन्मजात कमजोरी है और यह बीमारी इतनी जबरदस्त है लोहिया और जयप्रकाश के उत्तराधिकारी
मुलायम सिंह यादव, जार्ज फ़र्नाडिस, और शरद यादव की निगाह में देश में कहीं अन्याय, शोषण या कोई अन्य खराबी है वह केवल बिहार में ही है । उनकी तरकश के सारे तीर लालू प्रसाद की छाती को भेदने के लिये ही निकलते हैं । इसके लिये उन्हें संप्रदायवादी और फ़ासिस्ट भारतीय जनता पार्टी की महफ़िल में बैठने में भी कोई एतराज़ नहीं है । यही कारण है की एक दिन जिस समाजवादी पार्टी के नेताओं को सारा राष्ट्र नेहरू और काँग्रेस के विकल्प के रूप में देखता था और उनके वंशज आज यादवी संघर्ष के कारण इतिहास के कुड़ेदान में फ़ेंके जाने की दिशा में अग्रसर हैं ।

मध्य प्रदेश और होशंगाबाद जिला भी महात्मा गाँधी के नेतृत्व में लड़े गये, स्वाधीनता आंदोलन से अछूता नहीं रहा । राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित भवानी प्रसाद मिश्र, लाला अर्जुन सिंह, श्री सैयद अहमद, श्री नन्दकिशोर यादव, श्री नन्हेंलाल इत्यादि कांग्रेज के सिपाही थे तो समाजवादी प्रो. महेशदत्त मिश्रा, सुकुमार पगारे, दुर्गाप्रसाद जैसवाल और हरि विष्णु कामथ होशंगाबाद जिले की ओर से स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे थे । सन १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के समय श्री हरि विष्णु कामथ नरसिंहपुर के कलेक्टर थे और श्री आर.के पाटिल बैतूल के । इन दोनों ने आई.सी.एस. की अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर जेल यात्रा की । श्री हरि विष्णु कामथ १९५२ के प्रथम आम चुनाव से लेकर आपातकाल के बाद हुए १९७७ के आम चुनाव तक लोकसभा के समाजवादी पक्ष के उम्मीदवार रहे । स्व. ठाकुर निरंजन सिंह की संगठन क्षमता और स्व. कामथ साहब की लोकप्रियता ने इस नर्मदांचल को समाजवादियों का गढ़ बना दिया था । कामथ जी एक महान देशभक्त कट्टर सिद्धांत्वादी, ईमानदार और सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यॊं के मसीहा थे । जिस समय कामथ जी राजनीति में सक्रिय थे उस समय कांग्रेस में होना सत्ता में होने के बराबर था । सन १९६२ में रामराज्य परिषद के नाम पर लोकसभा का उम्मीदवार प्रभावती राजे ने क्षेत्र में साम्प्रदायिकता का विष फ़ैलाया लेकिन कामथ जी ने द्र्ढ़ता पूर्वक साम्प्रदायिकता का मुकाबला किया और उसे पैर जमाने का मौका नहीं दिया । यह इतिहास का अजीब व्यंग्य है कि कामथ जी जैसे लोगों के अभाव के कारण नर्मदांचल में ही नहीं पूरे मध्यप्रदेश में साम्प्रदायिक और फ़ासिस्टवादी ताकतों ने अपने पैर जमा लिये । प्रभावती राजे की नई अवतार बहन उमा भारती राम मंदिर के नाम पर साम्प्रदायिक विष वमन करने के लिये ख्याति प्राप्त कर चुकी है । महान हिन्दू धर्म को कलंकित करने वाली घटना बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय, ध्वंस के आनंद से उन्मत्त होकर "एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो" का नारा लगाते हुए मुरली मनोहर जोशी की पीठ पर चढ़ने वाली उमा भारती लिब्राहन आयोग में भोलेपन से बयान दे रही है मैं तो मस्जिद बचाने गई थी । वे आज मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री हैं ।

कामथ जी एक निस्प्रह और फ़क्कड़ आदमी थे । गेहुँआ रंग, लम्बी काया, चेहरे पर बिखरी हुई दाढ़ी, लम्बा कुर्ता और फ़ुलपेन्ट पहने खाली जेब कामथ जी का व्यक्तित्व समाजवाद की जीती जागती मिसाल था । १९७७ में आपातकाल के बाद जब लोकसभा चुनाव का मोका आया तब हमने अपने साथियों के साथ विचार कि क्या किया जाये । आम जनता आपातकाल के आतंक के कारण भयभीत थी, कोई बात करने के लिये भी तैयार नहीं था । साथियों के साथ निर्णय किया कि चुनाव का परिणाम कुछ भी हो अगर नये आदमी को उम्मीदवार बनाया गया तो यह बताना पड़ेगा कि यह आदमी कौन है इसीलिये कामथ जी से ही अनुरोध किया जाये कि वे चुनाव लड़ें और वे अपनी अधिक आयु के कारण चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके थे । साथियों के साथ जब श्री कामथ जी से मेनें अनुरोध किया तब फ़क्कड़ कामथ जी ने अपनी जेब झाड़ते हुए कहा, गुप्ता जी ५० रूपये जेब में हैं और आप लोकसभा चुनाव की बात कर रहें हैं । यह सुनते ही मैं तुरंत लौटकर घर आया ५०० रुपये की राशि घर से लेकर जमानत जमा हुई, कामथ जी उम्मीदवार हुए । जनता जनार्दन के अपूर्व सहयोग से बगैर ५०रू. भी खर्च किये, कामथ जी लोकसभा का चुनाव जीते ।

सन १९२० में दक्षिण आफ़्रिका से लौटे महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जब पूरा देश, हिन्दू-मुसलमान, बुद्धिजीवी, मज़दूर-किसान अंग्रेजों के विरूद्ध आजादी की लड़ाई लड़ रहा था । तब अंग्रेजों का हित साधने के लिये मुस्लिम लीग के साथ १९२५ पैदा हुआ राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ हिन्दू मुसलमानो में फ़ूट डालकर दंगे करवा रहा था । पूरे राष्ट्रीय आंदोलन में यही द्रश्य रहा की कामथ जी जैसे लाखों देशभक्त जेल यात्रा करते रहे और संघ के स्वंय सेवक दंगे कराते रहे । १९७५ में जब देश में आपातकाल लगा तब स्वाधीनता आंदोलन की परंपरा के अनुरूप चंडीगढ़ जेल में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने अपनी डायरी में लिखा "क्या अब यह इतिहास का एक व्यंग्य बनकर रह जायेगा । सब जी हजूर कायर बुजदिल तो जरूर हँसते होगें हम पर, कि आसमान के सितारे तोड़ने चले थे और अब जा गिरे हैं नरक में । लेकिन दुनिया में जो कुछ किया है वह सितारे तोड़ने वालों ने ही किया है, चाहे भले ही उसके लिये उन्हें प्राणों का मूल्य चुकाना पड़ा है ।" उसी समय कामथ साहब देवलाली जेल में बंद थे । तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सर-संघ चालक स्व. बाला साहब देवरस, संघ की परंपरा के अनुरूप श्रीमति इंदिरा गाँधी को पत्र लिखकर उनके २० सूत्रीय कार्यकृम ही नहीं अपितु स्व. संजय गाँधी के ४ सूत्रीय कार्यकृम की शान में कसीदे कस रहे थे । ये वही संजय गाँधी हैं जिनको तात्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष स्व. देवकांत जी बरूआ ने चाटुकारिता की सारी मर्यादायें तोड़ते हुए स्वामी विवेकानंद का अवतार कहा था । जिनकी पत्नी और स्व. इंदिरा गाँधी की छोटी बहू श्रीमति मेनका गाँधी अब भारतीय जनता पार्टी में शामिल होकर उसके हरम की शोभा बढ़ा रही है । यही वह समय है जब नर्सिंहगढ़ जेल में बंद समाजवादी श्री शरद यादव और मधु लिमये स्वाधीनता आंदोलन की परंपरा के अनुरूप जेल से ही लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र भेज रहे थे और संघ के स्वयं सेवक माफ़ी नामे भेज-भेजकर सेकड़ो रीम कागज खर्च कर रहे थे । स्वाधीनता आंदोलन की परंपरा थी कि गाँधी के किसी सिपाही ने कभी अंग्रेजों की अदालतों में कभी मुकदमे नहीं लड़े । लेकिन स्वयं सेवकों को चरित्र, त्याग, सयंम और बहादुरी की शिक्षा और संस्कार देने का दावा करने वाले संघ के स्वयं सेवक स्वनाम धन्य, विकास पुरूष प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाचपेयी और लोह पुरूष उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने बेंगलोर जेल से अपनी रिहाई के लिये उच्चतम न्यायलय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका प्रस्तुत की ।

प्रधानमंत्री की तुकबंदीयों में काव्यरस की खोज कर सत्ता की चौखट पर नर्तन करने वाले दरबारी और चाटुकार महाकवि जयशंकर प्रसाद की इस उक्ति को कैसे समझेगें कि "कविता करना अत्यंत पुन्य का फ़ल है" । महाकवि निराला की यह पंक्तियाँ इस सत्य को उदघाटित कर रहीं हैं की जव ह्रदय ही निर्मल नहीं तब कविता कैसे?

"तुम तुंग हिमालय श्रंग, और मैं चंचल सुर-सरिता ।
तुम विमल ह्र्दय उच्छ्वास, और मैं कांति-कामिनी कविता ।"


कविता वह नहीं जिसे अटल जी कहते हैं । कविता वह है, जिसे स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष के दिनों में राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने कही थी और जिसने राष्ट्रीय मानस में संघर्ष की ज्योति जगाई थी ।

"मुझे तोड़ लेना वन माली, उस पथ पर तुम देना फ़ेंक ।
मातॄभूमी पर शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक ।"

कविता वह है जिसे अपातकाल के आंतक के सन्नाटे को चीरते हुए कविवर भावानी प्रसाद मिश्र ने कही थी ।

"बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले ।
उनने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले उनके ढ़ंग से उड़े, खायें और गायें
जिसको वो त्यौहार कहें सब उसे मनायें ।
कभी-कभी यह हो जाता है दुनिया में, दुनिया भर के गुण दिखने लगते हैं, अवगुणियों में ।"

राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी और कविवर भावानी प्रसाद मिश्र ने नर्मादांचल में जन्म लेकर इसे गौरवान्वित किया है ।

समाजवादीयों के व्यक्तिगत अहंकार की आज देश को कितनी कीमत चुकानी पड़ रही है कि धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र के मसीहा समतावादी समाज की रचना के लिये "सं.सो.पा. ने बाँधी गाँठ पिछड़े पावें सौ में साठ" का नारा देने वाले डाँ. राममनोहर लोहिया के चेले जार्ज फ़र्नाडिंस आज फ़ासिस्ट और सांप्रदायिक भारतीय जनता पार्टी में तबला बजा रहें हैं । यह हमारा सौभाग्य है कि स्वाधीनता आंदोलन में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले गांधी के सिपाही श्री मन्नूलाल चौधरी, श्री जुगल किशोर सोनी, श्री पन्नालाल जी मालवीय, श्री एन्नालाल जी डेरिया और श्री प्रेम नारायण व्यास अभी मौजूद हैं । उनके श्री चरणों में मेरा प्रणाम

होशंगाबाद जिले की राजनीति में उच्च मानवीय मूल्यों की मशाल जीवन के अंतिम क्षण तक अपने मजबूत हाथों में संभालने वाले श्री हरिविष्णु कामथ को शत शत नमन ।

"स्व. श्री हरिविष्णु कामथ और भावानी प्रसाद मिश्र की जयंती के अवसर पर भावभीनी श्रद्धाँजली"

Friday, January 26, 2007

बढ़ती हिंसा, असामाजिकता और हमारे नैतिक मूल्य...

प्रिय बंधुओ,

आजकल शहरों में अचानक कुछ गुंडे और मवाली आतंक फैलाकर दुकानें बन्द करा देते हैं । पहले व्यापारी भयभीत होकर दुकानें बन्द करते हैं, फिर सामूहिक रूप से जिला प्रशासन के खिलाफ़ अपनी नाराजी प्रकट करते हैं । यह दृश्य देखकर ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई कुकर्मी माता-पिता अपने आवारा बेटों पर नाराज हो रहे हों । तनिक विचार तो कीजिये जो हो रहा है , उसके लिये कहीं हम सब तो उत्तरदायी नहीं हैं । व्यापारी होने के सिवाय हम सब के दो स्वरूप और हैं ।पहला - पारिवारिक स्वरूप, दूसरा - नागरिक स्वरूपपहले पारिवारिक स्वरूप की बात कर लें, ज़रा विचार तो कीजिये । एक व्यापारी के रूप में जिस आतंक और अन्याय को भोगने के लिये हम अभिशप्त हैं, उसका निर्माण अपने पारिवारिक और नागरिक स्वरूप में कहीं हम ही तो नहीं कर रहे हैं । विचार कीजिये अपने परिवार और मित्रों के बीच हम पवित्र कुरान की आयतों या वेद मंत्रों की भांति गर्वपूर्वक अपने ज्ञानमय वाक्यों को अनेक बार नहीं दोहरा रहे हैं ।जैसे - आजकल सब चोर है, सारे नेता बेईमान हैं, सारे अधिकारी भ्रष्ट हैं । कभी विचार किया है, यह कहकर आप अपने बेटों को प्रकारान्तर से यह तो नहीं समझा रहे हैं कि उन्होने जिस समाज में जन्म लिया है और जी रहे हैं, उसमें हर आदमी झूठा और बेईमान है । इस समाज में रहने के लिये कहीं बड़ा झूठा और बेईमान होने का लाईसेंस तो हम अपने बच्चॊं को नहीं दे रहे हैं । याद कीजिये क्या हमने अपने परिवारों में चर्चा करते समय उन चरित्रहीन और घटिया लोगों को महिमा-मंडित तो नहीं किया है जिन्होने अन्याय और गलत साधनों से धन या रूतबा हासिल किया है । कभी गांधी, जवाहरलाल, भगतसिंह, सुभाष, मौलाना आज़ाद या रफ़ी अहमद किदवई हमारे परिवारों में चर्चा का विषय बने हैं ।हम यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि कोई गुरु नानक, दयानंद या विवेकानन्द हमारे परिवारों में चिन्तन का विषय नहीं हैं। वह भी केवल इस अपराध के लिये कि उन्होने दो पैसे नही कमाये, या अन्याय और आतंक से कोई पद या रूतबा हासिल नहीं किया । याद कीजिये कभी आपने, उन लोगों के प्रति उपेक्षा या घृणा का भाव अपने परिवार में, बच्चॊं के सामने प्रदर्शित किया है, जिन्होने अन्याय और गलत साधनों से सफ़लता अर्जित की है, जरा अपने मन को टटोलिये कि अपनी धार्मिक आस्था में हम किन लोगों के साथ खड़े हैं । उन लोगों के साथ जो गणेश जी की मूर्ति को दूध पिलाने के पाखण्ड में विश्वास रखते हैं और यह विश्वास करते हैं कि किसी पीर की आसमानी ताकत से समुद्र का पानी मीठा हो गया, या उन लोगों के साथ खड़े हैं, जो साहसपूर्वक यह कहने का साहस करते हैं कि यह दोनों ही पाखण्ड हैं, जो अज्ञान और अंधविशवास से पैदा हुए हैं । अगर हमारे परिवारों में गुरुनानक सहित गुरु गोविन्द सिंह की परंपरा चर्चा का विषय होती तो हमारे बच्चे यह जान पाते कि एक मात्र हमारे सिख भाइयों की ही यह परंपरा है, जिनके गुरुओं ने अपने धर्म और आत्म सम्मान की रक्षा के लिये शीश बलिदान किये हैं । इतिहास में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि १००० वर्षों में किसी शन्कराचार्य ने अपने सिर कटवाये हों । महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी ने आत्म रक्षा में वीरतापूर्वक लड़ाईयाँ लडीं थीं लेकिन अन्याय और आतंक के प्रतिकार के दर्शन को जन्म देकर उस समाज का निर्माण नहीं कर सके जो आतंक के सामने झुकने के बजाय जीवन उत्सर्ग करना महत्वपूर्ण मानता है । यह श्रेष्ठ कर्म पंचम गुरु अर्जुन देव से लेकर दशम गुरु गोविन्द सिंह तक सिख गुरुओं ने ही किया है । अगर हमारे परिवारों में इनके विषय में चिंतन की परंपरा होती तो हमारे बच्चों को यह ज्ञात होता कि खालसा पंथ की स्थापना गुरुओं ने समाज और स्वभिमान की रक्षा के लिये ही की थी । भारतीय समाज अगर सम्मानपूर्वक जीवित है तो यह उपकार सिख गुरुओं, ऋषि दयानंद और स्वामी विवेकानन्द जैसे लोगों का ही है । अगर यह ज्ञान रखना पारिवारिक परंपरा रही होती तो न स्वर्गीय इन्दिरा गान्धी जैसी साहसी महिला प्रधानमंत्री से देश वंचित होता और ना हमारे नौनिहाल जयपुर में किसी सिख साथी के बाल काटते, जिससे देश भर में हिन्सा का वातावरण बन गया है ।एक नागरिक के रूप में आप क्या कर रहे है? हमारा देश एक जनतांत्रिक समाज है, आप जिस किसी राजनेतिक दल में हो या उसे मत देते हो ये महत्वपूर्ण नहीं है । महत्वपूर्ण है कैसे आदमी को वोट देते हो । आप कभी ऐसे आदमी को वोट देते हैं जिसका चरित्र समाज और बच्चॊं के लिये प्रेरणादायक हो ।विचार कीजिये, क्या आप उन्हें वोट नहीं दे रहे, जिन्होने धन और आतंक से रुतबा हासिल किया है । एक ऐसा समाज जो अपने देश का इतिहास, उसकी गौरवशाली परंपराये, उसकी कमजोरियों और उसके कारणों को न जानने वाले डकेतों, दलालों और माफियाओं को अपना नेता चुनता है, उसे प्रशासन की यह आलोचना करने का नैतिक अधिकार नहीं हैं कि वह आतंक से उनकी रक्षा नहीं करता है । प्रशासन में बैठे हुए लोग कोई आसमान से उतरे हुए फ़रिश्ते नहीं हैं, वो भी उसी समाज का हिस्सा हैं जो गुंडो और मवालियों को अपना नेता चुन रहा है । जॉर्ज बर्नाड शॉ की गिनती संसार के चुने हुए बुद्धिमानों में होती है । उनका यह कथन याद रखिये - "जब जनता मूर्ख होती है, तो नेता धूर्त होता है" ।उस घटना को याद कीजिये जिस पर आप इतना नाराज हो रहे हैं । याद कीजिये आपने हमेशा शिव-सैनिकों, बजरंग दलियों या राजनीति के भेष में आये हुए किसी भी माफ़िया के आव्हान पर नत-मस्तक होकर दुकान बन्द नहीं की है क्या ? जिस किसी के हाथ में मारने के लिये जूता या बाँटने के लिये पंजीरी हो, उसे आप नमस्कार नहीं करते क्या? ऎसा कोई नेता अपनी दुकान पर आ जाने पर आप अपने आप को धन्य मानकर उसके साथ फोटो खिंचाने को उत्सुक नहीं रहते क्या ? जिन बच्चों ने अभी आतंक फ़ैलाया था वे अपनी ही बिगड़ी हुई ऒलादें हैं, जो अपनी ही हरकतों को देखकर यह सीख रही है कि अन्याय और आतंक से, झूठ और फरेब से, धन और रूतबा हासिल करना ही नेता होने की कसौटी है । उन्होनें गलत क्या किया है भाई ? नाराज़ क्यों हो रहे हो ?अभी गणेशोत्सव और नवरात्रि का त्योहार आने वाला है । क्या हम नहीं जानते की हमने हमारे सारे त्योहार गुंडो और मवालियों के हवाले कर दिये हैं । गणेशोत्सव हो या दुर्गा उत्सव, उसके स्थापना और विसर्जन के जुलूसों में प्रतिमाओं के आगे शराब पीकर नाचनेवाले कहीं बाहर से नही आये हें, ये हमारे ही नौनिहाल हैं जो अश्लील और भोडे नृत्यों पर हुड़्दंग कर रहे हैं । प्रतिक्षण इस बात की सम्भावना रहती है कि कहीं शान्ति भंग होकर दंगे में परिणत ना हो जाये ।अगर प्रशासन के किसी अधिकारी ने इन धार्मिक जुलूसों में शराब पीकर हुड़दंग करने वाले अपने किसी बेटे को पकड़ लिया तो आप उस अधिकारी की सराहना करेंगे या किसी राजनैतिक माफ़िया के धार्मिक आस्था पर चोट पहुँचाने के आदेश पर बन्द के आव्हान पर दुकान बन्द करेंगे । यह व्यापारी समाज ही है जो प्रकारांतर से धर्म के नाम पर होने वाले इन आयोजनों के लिये हजारों, लाखों रूपये चंदा देता है । क्या तमाम व्यापारी संगठन यह घोषणा नही कर सकते, जो गणेश उत्सव या दुर्गा उत्सव समिति अपने समारोहों में शराब पीकर अश्लील नृत्य और हुडदंग न होने देने की घोषणा और प्रयास सार्वजनिक रूप से नहीं करती उसे कोई व्यापारी चन्दा नहीं देगा ।याद रखिये यह हमारी उपेक्षा और अज्ञान है, जिससे समाज के बौने और घटिया लोगों की छाया लम्बी हो रही है । अगर आप अपने देश में न्याय और शान्ति के सूर्य का अस्त होना न देखना चाहे तो ऐसे बौने और घटिया लोगों का समर्थन करने वालों की कतार में शामिल ना हों । कृपया अपने समाज के उन लोगों का सम्मान कीजिये जो इस देश की परंपरा, उसका गौरवशाली इतिहास अपने निजी और सार्वजनिक आचरण से प्रमाणित करते हो और हमारी उपेक्षा या सम्मान उसे अपने कर्तव्य से विचलित नहीं करती हो ।